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होता॑ यक्ष॒दोजो॒ न वी॒र्य᳖ꣳ सहो॒ द्वार॒ऽ इन्द्र॑मवर्द्धयन्। सु॒प्रा॒य॒णाऽ अ॒स्मिन् य॒ज्ञे वि श्र॑यन्ता॒मृता॒वृधो॒ द्वार॒ इन्द्रा॑य मी॒ढुषे॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। ओजः॑। न। वी॒र्य᳖म्। सहः॑। द्वारः॑। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒य॒न्। सु॒प्रा॒य॒णाः। सु॒प्रा॒य॒ना इति॑ सुऽप्राय॒नाः। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। वि। श्र॒य॒न्ता॒म्। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। द्वारः॑। इन्द्रा॑य। मी॒ढुषे॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसे मनुष्य सुखी होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) यज्ञ करनेहारे जन ! जैसे जो (सुप्रायणाः) सुन्दर अवकाशवाले (द्वारः) द्वार (ओजः) जलवेग के (न) समान (वीर्यम्) बल (सहः) सहन और (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (अवर्द्धयन्) बढ़ावें, उन (ऋतावृधः) सत्य को बढ़ानेवाले (द्वारः) विद्या और विनय के द्वारों को (मीढुषे) स्निग्ध वीर्यवान् (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त राजा के लिये (अस्मिन्) इस (यज्ञे) सङ्गति के योग्य संसार में विद्वान् लोग (वि, श्रयन्ताम्) विशेष सेवन करें (आज्यस्य) जानने योग्य राज्य के विषय को (व्यन्तु) प्राप्त हों और (होता) ग्रहीता जन (यक्षत्) यज्ञ करे, वैसे (यज) यज्ञ कीजिये ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य इस संसार में विद्या और धर्म के द्वारों को प्रसिद्ध कर पदार्थविद्या को सम्यक् सेवन करके ऐश्वर्य को बढ़ाते हैं, वे अतुल सुखों को पाते हैं ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशो जनाः सुखिनो भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

(होता) (यक्षत्) (ओजः) जलवेगः। ओज इत्युदकना० (निघं०१.१२) (न) इव (वीर्यम्) बलम् (सहः) सहनम् (द्वारः) द्वाराणि (इन्द्रम्) ऐश्वर्यम् (अवर्द्धयन्) वर्धयन्तु (सुप्रायणाः) शोभनानि प्रकृष्टान्ययनानि यासु ताः (अस्मिन्) वर्त्तमाने (यज्ञे) सङ्गन्तव्ये संसारे (वि) (श्रयन्ताम्) सेवन्ताम् (ऋतावृधः) या ऋतं सत्यं वर्द्धयन्ति ताः (द्वारः) विद्याविनयद्वाराणि (इन्द्राय) परमैश्वर्ययुक्ताय (मीढुषे) स्निग्धाय सेचनसमर्थाय (व्यन्तु) प्राप्नुवन्तु (आज्यस्य) विज्ञेयस्य राज्यविषयस्य (होतः) (यज) ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतर्यथा याः सुप्रायणा द्वार ओजो न वीर्यं सह इन्द्रं चावर्द्धयन्, ता ऋतावृधो द्वारो मीढुष इन्द्रायास्मिन् यज्ञे विद्वांसो विश्रयन्तामाज्यस्य व्यन्तु होता च यक्षत् तथा यज ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या अस्मिन् संसारे विद्याधर्मद्वाराण्युद्घाट्य पदार्थविद्यां संसेव्यैश्वर्यं वर्द्धयन्ति तेऽतुलानि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे विद्या व धर्म यांच्या साह्याने पदार्थ विद्येचा सम्यक अंगीकार करून ऐश्वर्य वाढवितात ती अत्यंत सुख प्राप्त करतात.